नीलकंठ महादेव: समुद्र मंथन और विषपान की अमर कथा, Story in Hindi
🔱 भूमिका
learnkro.com-हिंदू धर्म में भगवान शिव को “देवों के देव महादेव” कहा जाता है। वे संहारक हैं, लेकिन साथ ही करुणा और तपस्या के प्रतीक भी। इस कथा में हम जानेंगे कि कैसे उन्होंने समस्त सृष्टि की रक्षा के लिए कालकूट विष का पान किया, और कैसे वे “नीलकंठ” कहलाए।
🌊 समुद्र मंथन की पृष्ठभूमि
बहुत समय पहले की बात है। देवताओं और असुरों के बीच लगातार युद्ध हो रहे थे। देवता कमजोर हो चुके थे और अमरत्व प्राप्त करने के लिए अमृत की खोज में थे। तब भगवान विष्णु ने सुझाव दिया कि समुद्र मंथन किया जाए, जिससे अमृत सहित कई दिव्य रत्न प्राप्त होंगे।
मंदराचल पर्वत को मथनी और वासुकी नाग को रस्सी बनाकर समुद्र मंथन आरंभ हुआ। देवता एक ओर और असुर दूसरी ओर खड़े हुए। मंथन शुरू होते ही समुद्र से अद्भुत वस्तुएँ निकलने लगीं—कामधेनु, ऐरावत, कल्पवृक्ष, लक्ष्मी देवी, चंद्रमा आदि।
लेकिन तभी समुद्र से निकला एक भयंकर, काला, जलता हुआ कालकूट विष—इतना घातक कि उसकी ज्वाला से तीनों लोक जलने लगे।
🔥 त्राहि त्राहि और देवताओं की पुकार
विष इतना प्रचंड था कि देवता और असुर दोनों ही भयभीत हो गए। कोई भी उसे छूने का साहस नहीं कर सका। तब सभी देवता ब्रह्मा और विष्णु के साथ कैलाश पर्वत पहुँचे और भगवान शिव से प्रार्थना की:
“हे महादेव! आप ही त्रिलोक के स्वामी हैं। यह विष समस्त सृष्टि को नष्ट कर देगा। कृपया इसे रोकिए।”
☠️ विषपान और नीलकंठ की उत्पत्ति
भगवान शिव ने बिना एक क्षण गंवाए, विष को अपने हाथों में लिया और पी गए। लेकिन उन्होंने उसे अपने गले से नीचे नहीं उतरने दिया, ताकि वह उनके शरीर को नष्ट न करे। विष उनके कंठ में अटक गया और वहाँ से उनकी त्वचा नीली हो गई।
तभी से वे “नीलकंठ” कहलाए।
देवताओं ने आकाश से पुष्पवर्षा की। पार्वती जी ने तुरंत शिव के गले को पकड़ लिया ताकि विष नीचे न जाए। सभी ऋषि-मुनियों ने स्तुति की और शिव की त्यागमयी महिमा का गुणगान किया।
🌌 ब्रह्मांडीय संतुलन की रक्षा
भगवान शिव का यह त्याग केवल एक विषपान नहीं था—यह संपूर्ण ब्रह्मांड के संतुलन की रक्षा थी। यदि वह विष फैल जाता, तो जल, वायु, पृथ्वी सब नष्ट हो जाते। शिव ने न केवल जीवन को बचाया, बल्कि यह भी सिखाया कि सच्चा नेतृत्व वह है जो दूसरों के कष्ट को स्वयं झेल ले।
🕉️ प्रतीकात्मक अर्थ
- विष = हमारे भीतर की नकारात्मकता, क्रोध, अहंकार
- शिव का विषपान = आत्म-संयम और करुणा
- नीलकंठ = वह जो विष को भी सौंदर्य में बदल दे
यह कथा हमें सिखाती है कि सच्चा योगी वही है जो विष को भी अमृत बना दे, जो दूसरों के लिए अपने सुख का त्याग कर सके।
📿 कथा का प्रभाव और आज का संदर्भ
आज भी जब कोई व्यक्ति दूसरों के लिए त्याग करता है, तो उसे “नीलकंठ” कहा जाता है। यह कथा हमें प्रेरित करती है कि हम अपने भीतर के विष को पहचानें और उसे शिव की तरह धैर्य, करुणा और तपस्या से नियंत्रित करें।