नील तारा की रहस्यमयी किताब
Learnkro.com– रैवन्सपुर एक छोटा लेकिन रहस्यमयी गाँव था, जहाँ नीले आकाश के नीचे पुराने खंडहर, बांस के जंगल और गहराई से भरे हुए कुएँ आज भी पिछली पीढ़ियों की कहानियाँ फुसफुसाते थे। यहीं रहती थी तारा—ग्यारह साल की एक तेज़, जिज्ञासु और चुलबुली बच्ची, जिसकी आंखों में सदैव कुछ नया खोजने की चमक होती थी।
वह अपनी दादी सरस्वती देवी के साथ रहती थी, जो गाँव की पुरानी किस्सागो मानी जाती थीं। शाम को आँगन में बैठकर वे तारा को अद्भुत लोकों, असाधारण प्राणियों और वक़्त में खोई हुई किताबों की कहानियाँ सुनातीं।
एक अनजानी खोज
एक दिन, जब बारिश बंद हो चुकी थी और सूरज की पहली किरणें टपकती हुई पत्तियों पर चमक रहीं थीं, तारा गाँव के बाहर खंडहरों में खेल रही थी। वहाँ एक पुराना टूटा हुआ पत्थर कुछ अजीब लग रहा था—जैसे कोई उसे बार-बार घूर रहा हो।
जिज्ञासावश उसने पत्थर को हटाया और नीचे जो देखा, उसकी सांसें थम गईं। एक चमचमाती नीली किताब… धूल-मिट्टी से अलग, जैसे वर्षा के पानी ने उसे ठीक अभी-अभी धोया हो।
किताब का जादू
किताब खोलते ही हवा में एक हलकी गूंज हुई—जैसे दूर से किसी ने फुसफुसा कर कहा हो, “तुम चुनी गई हो।”
पहले पन्ने पर सुनहरे अक्षरों में लिखा था:
“यह केवल पढ़ने की किताब नहीं… यह जीने की परीक्षा है।”
तारा ने दादी को कुछ नहीं बताया। वह जानती थी, कुछ रहस्य खुद सुलझाने चाहिए। हर रात वह किताब के नए अध्याय को पढ़ती और अगले दिन जागते ही कुछ नया घटित होता।
प्रथम अध्याय: दरवाज़ा समय का
अध्याय खुलते ही वह खुद को एक दूसरी जगह पर पाती है—सुनहरा मैदान, जहां सूरज नीचे से उग रहा था और घास के तिनकों पर तारे झिलमिला रहे थे। वहाँ उसे एक वृद्ध ऋषि मिले, जिनके माथे पर समय का चक्र घूम रहा था।
“क्या तुम वक़्त को बदलना चाहती हो या खुद को?” उन्होंने पूछा।
तारा उलझ गई। “मुझे नहीं पता,” उसने ईमानदारी से कहा।
“तभी परीक्षा शुरू होती है,” ऋषि बोले।
उसे एक अनोखी घड़ी दी गई—हर बार जब वह कोई सही निर्णय लेती, घड़ी की सुइयाँ आगे बढ़तीं। लेकिन जैसे ही वह डर या लालच से भर जाती, सुइयाँ उलट जातीं।
द्वितीय अध्याय: भावनाओं का जंगल
अब वह घनी झाड़ियों और असंख्य आवाज़ों वाले जंगल में थी। यहाँ पेड़ बात करते थे, और नदी गुनगुनाती थी। लेकिन वह खुश नहीं थी—हर पेड़ किसी बीते हुए दुःख की कहानी सुना रहा था।
एक बेल ने उसे जकड़ लिया और फुसफुसाया, “कभी-कभी अपनी भावनाओं को छिपाना भी डर की निशानी है।”
तारा को समझ आया, उसे अपने डर को स्वीकार करना होगा। उसने ज़ोर से कहा, “मैं डरती हूँ… लेकिन मैं रुकूंगी नहीं!” और बेल झड़कर गिर गई।
तृतीय अध्याय: परछाई की परीक्षा
अब वह एक दर्पणों के महल में थी, जहां हर शीशे में उसकी अलग-अलग छवियाँ दिख रहीं थीं—एक डरपोक, एक क्रोधित, एक घमंडी, और एक उदास।
एक आवाज़ आई: “जो खुद को पूरी तरह देख सका, वही बाहर निकल सकेगा।”
तारा ने अपनी परछाई से आंखें मिलाईं और पहली बार खुद को सच में देखा—ख़ामियों और अच्छाइयों के साथ। तभी रास्ता खुला, और उसने पहली बार महसूस किया, वह बड़ी हो रही है।
दादी का रहस्य
कई अध्यायों के बाद, एक दिन किताब में आया एक ऐसा पृष्ठ जहाँ कोई अक्षर नहीं थे। बस एक चित्र था—दादी, उसी किताब को हाथ में लिए एक जादुई द्वार के सामने खड़ी थीं।
तारा हक्की-बक्की रह गई। दादी को यह किताब कैसे मिली थी? क्या वह भी इसमें से गुज़र चुकी थीं?
उसने दादी से पूछा। सरस्वती देवी मुस्कुराईं और चुपचाप अपनी अलमारी की एक पुरानी दराज़ खोली। उसमें वैसी ही एक किताब रखी थी—लेकिन मद्धम पड़ चुकी थी।
“मैंने भी इसे पढ़ा था,” दादी ने कहा। “लेकिन हर पीढ़ी को अपनी परीक्षा खुद देनी होती है। किताब सब कुछ बताती नहीं… बस रास्ता दिखाती है।”
अंतिम अध्याय: चुनाव का द्वार
अब किताब का आखिरी अध्याय आया था। तारा को दो रास्तों के बीच चुनना था:
- हमेशा के लिए उस जादुई लोक में रह जाए, जहाँ वह हर भाषा समझ सकती थी, हर जीव उसका मित्र था, और समय एक खेल था।
- या फिर अपने गाँव लौट आए, लेकिन एक नई समझ, नया नज़रिया और इस जिम्मेदारी के साथ कि वह एक दिन इस किताब को किसी योग्य बच्चे को सौंपे।
तारा ने आकाश की ओर देखा—जहाँ तारे नाच रहे थे, बादल रंग बदल रहे थे। लेकिन उसे पता था… असली जादू वहाँ नहीं, यहीं था—जहाँ रिश्ते, कहानियाँ, और सपने पनपते थे।
उसने किताब बंद की।
और किताब ने खुद को ताले में बंद कर लिया।
उपसंहार
तारा अब बड़ी हो चुकी है। वह रैवन्सपुर में एक स्कूल चलाती है, जहाँ बच्चों को कहानियाँ पढ़ाई जाती हैं—लेकिन कुछ कहानियाँ बस फुसफुसाई जाती हैं, जब नीली रोशनी खिड़की से झाँकती है और कोई बच्चा किताबों के पीछे छुपकर कुछ ढूँढता है…
और उस अलमारी में… किताब अब भी रखी है… नए जिज्ञासु हाथों के इंतज़ार में।